व्यावसायिक अथवा प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री-कार्य एवं दायित्व

व्यावसायिक अथवा प्रबन्धकीय
अर्थशास्त्री-कार्य एवं दायित्व ।
(Business or Managerial Economists-
Functions and Responsibilities)
व्यावसायिक फर्मों की जटिल आर्थिक समस्याओं के समाधान एवं अनेक अनिश्चितताओं के वातावरण में कुशल नियोजन एवं विवेकपूर्ण निर्णयों का विशेष महत्त्व है। अतः सर्वोच्च प्रबन्ध (Top Management) को आर्थिक मामलों पर सलाह देने के लिये जिस अधिकारी अथवा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है, उन्हें प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री (Managerial Economists) कहा जाता है। यह प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री अपने विशेष ज्ञान एवं प्रबन्ध तकनीक के द्वारा उच्चाधिकारियों को भावी नियोजन एवं आर्थिक निर्णयों में उपयोगी सहायता प्रदान करता है। वह व्यावसायिक फर्मों की समस्याओं के विश्लेषण, संगठन के मूल्यांकन तथा वैकल्पिक परियोजनाओं की तुलना में, परिष्कृत एवं आधुनिकतम विधियों का प्रयोग करता है और उचित समाधान ढूँढ़ने में बहुमूल्य भूमिका निभाता है।
इस व्यावसायिक प्रगति के युग में सर्वोच्च प्रबन्ध को जटिल आर्थिक समस्याओं के समाधान ढूँढने | में प्रबन्धकीय अर्थशास्त्रियों के महत्त्व को पर्याप्त रूप में स्वीकार किया गया है। आज विश्व के समृद्ध विकसित देशों-अमेरिका, रूस, जापान, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी आदि में बड़ी-बड़ी व्यापारिक एवं व्यावसायिक फर्मे एक या अधिक प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री रखती हैं। हमारे देश में भी इनका महत्त्व बढ़ रहा है। बड़ेबड़े उद्योगपति एवं व्यवसायी उनकी सेवाओं से लाभान्वित होने के लिये प्रयत्नशील हैं।

व्यवसाय में प्रबन्धकीय अथवा व्यावसायिक अर्थशास्त्री की भूमिका एवं कार्य
(Role & Functions of Managerial or Business Economist in Business)
व्यावसायिक क्षेत्र में अनिश्चितताओं के वातावरण में निर्णय और नियोजन दोनों कठिन कार्य हैं। अगर प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री अपने विशेष ज्ञान, प्रबन्धकीय योग्यता और तकनीकी जानकारी से अनिश्चितताओं का पूर्वानुमान लगाकर प्रबन्धकीय निर्णयों में निश्चितता लाता है तो वह अपने कार्य में काफी सफल कहा जायेगा
किसी भी व्यावसायिक फर्म का संचालन, संगठन और सफलता दो प्रकार के तत्त्वों-आन्तरिक (Internal Factors) तथा बाह्य-तत्त्वों (External Factors) से प्रभावित होती है। अगर प्रबन्धकीय जायेगा। अर्थ शास्त्री इन दोनों प्रकार के तत्वों का व्यापक विश्लेषण कर उनके प्रभावों को निश्चित रूप से प्रबन्धकीय नया में समायोजित करवा सके तो न केवल अनिश्चितताओं में कमी आएगी वरन् व्यावसायिक फर्म के सफल संचालन और तीव्र प्रगति का मार्ग प्रशस्त होगा। इस परिप्रेक्ष्य में प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री की प्रबन्धकीय सफ निर्णयों में भूमिका अलग-अलग परिस्थितियों में इस प्रकार होगी।
(A) आन्तरिक तत्वों का विश्लेषण अथवा व्यावसायिक क्रियाओं का विश्लेषण
(Analysis of Internal Factors or Analysis of Business Operations)
आन्तरिक तत्त्वों अथवा व्यावसायिक क्रियाओं का अभिप्राय उन कारकों से है जो किसी फर्म विशेष के अन्दर अथवा उसके कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं, उन पर फर्म के प्रबन्ध का पर्याप्त नियंत्रण होता है, जसे-उत्पादन मात्रा निर्धारण, मूल्य निर्धारण, व्यापार का विस्तार एवं संकुचन, फर्म में प्रयुक्त उत्पादन विधि, स्थापित क्षमता का प्रयोग करना या न करना, वित्तीय व्यवस्था, पूँजी एवं लाभ प्रबन्ध आदि फर्म की व्यावसायिक क्रियाओं तथा आन्तरिक तत्वों के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार के मामलों में प्रबन्धकीय अथशास्त्री प्रबन्ध को निम्न क्षेत्रों में मदद कर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
(1) आगामी वर्ष में लाभ तथा विक्रय मात्रा का बजट निर्धारण;
(2) आगामी वर्ष में उत्पादन मात्रा व माल अनुसूचियाँ और स्कन्ध नीति निश्चित करना;
(3) अगले वर्षों में मूल्य नीति एवं मजदूरी नीति में क्या-क्या परिवर्तन किया जाना चाहिए:
4) आगामी अवधि में फर्म की साख नीति कैसी हो, उसमें क्या-क्या परिवर्तनं वांछनीय हैं;
(5) अगले वर्ष में व्यापार का विस्तार या संकुचन किया जाए अगर हाँ तो कितना-कितना;
(6) आगामी वर्ष में कितनी स्थापित क्षमता का प्रयोग किया जाए और कौन-कौन से साधनों को कितना-कितना लगाया जाए कि साधनों का आदर्श संयोग हो सके।
(7) लागत न्यूनतम करने के लिये क्या कदम उठाने चाहिये।
(8) आगामी वर्ष के तिमाही, छमाही आदि में कितना-कितना रोकड़ शेष उपलब्ध होगा और कमी की पूर्ति कैसे की जायेगी तथा आधिक्य का विनियोग कैसे करना चाहिए आदि का सुझाव देता है।
(B) बाह्य-तत्त्वों का विश्लेषण (Analysis of External Factors)
व्यावसायिक फर्म के निर्णयों पर केवल आन्तरिक तत्त्व ही प्रभाव नहीं डालते वरन् बाह्य परिस्थितियाँ भी काफी प्रभाव डालती हैं। ये न तो फर्म के नियंत्रण में होती हैं और न उसके कार्यक्षेत्र में ही पड़ती हैं।
उदाहरणार्थ, व्यापार चक्र, सरकारी नीतियाँ, मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति, राष्ट्रीय आय, विदेशी व्यापार नीति, श्रम अधिनियम, सरकार की मूल्य नीति आदि ऐसे बाह्य कारक हैं जो फर्म के भावी नियोजन एवं निर्णयों को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं। अतः प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री इन कारकों का निरन्तर अध्ययन और व्यापक विश्लेषण कर सर्वोच्च प्रबन्ध को नीतियों में आवश्यक समायोजन की सलाह देकर अपना कर्तव्य निभा सकता है। उसे मुख्यतः निम्न क्षेत्रों के विषय में सलाह देनी चाहिए
(1) किन-किन बाजारों में क्या-क्या माँग होगी और फर्म के उत्पादों के बाजार की सम्भावनाएँ । कैसी हैं?
(2) राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था और अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की क्या-क्या प्रवृत्तियाँ हैं और निकट भविष्य । में उनमें परिवर्तन की क्या संभावनाएँ हैं?
(3) व्यापार चक्र की कौनसी अवस्था है और निकट भविष्य में उसका रुख एवं गति क्या होगी? सम्भावनाएँ हैं? ।
(4) कच्चे माल की पूर्ति तथा मूल्य की सम्भावनाएँ क्या हैं और निकट भविष्य में उनमें क्या ।
(5) निर्मित माल की भावी माँग एवं मूल्य सम्बन्धी सम्भावनाओं का पता लगाना।।
(6) भविष्य में साख की लागत एवं उपलब्धता की सम्भावनाएँ क्या हैं?
(7) भविष्य में आर्थिक नीतियों व नियंत्रणों में परिवर्तन की सम्भावनाएँ क्या-क्या हैं?
(8) ईंधन अथवा शक्ति की उपलब्धता एवं लागत की भावी सम्भावनाएँ क्या हैं?
(9) व्यवसाय में भविष्य में प्रतियोगिता घटने या बढ़ने की सम्भावनाएँ कैसी हैं?
(10) राष्ट्रीय आय में भविष्य में परिवर्तन की सम्भावनाएँ एवं गति क्या है तथा उसका फर्म के उत्पाद की माँग में क्या परिवर्तन होगा?
(C) प्रबन्धकीय अथवा व्यावसायिक अर्थशास्त्री के विशिष्ट कार्य
(Specific Functions of a Managerial or Business Economist)
प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री व्यावसायिक फर्मों में आन्तरिक तत्त्वों तथा बाह्य तत्त्वों का विश्लेषण करके भावी निर्णयों में सलाह तो देता ही है पर आजकल उनके कार्यों में वृद्धि हो गई है और वे अनेक विशिष्ट कार्य भी करते हैं जो सरकार, व्यवसायी, व्यक्तियों एवं उद्योगपतियों को लाभप्रद होते हैं। इनमें कतिपय विशिष्ट कार्य इस प्रकार हैं
(1) विभिन्न बाजारों का सर्वेक्षण करना;
(2) व्यवसाय का उद्योग की कुल माँग का पूर्वानुमान लगाना;
(3) विभिन्न उद्योगों में मूल्य निर्धारण का विश्लेषण करके समस्या का उपयुक्त हल ढूंढ़ना;
(4) प्रतिस्पर्धी फर्मों में मूल्यों, लागतों एवं क्रियाओं का विश्लेषण करना;
(5) उत्पादक कार्यों में पूँजी परियोजनाओं का मूल्यांकन एवं विश्लेषण;
(6) उद्योग में उत्पादन अनुसूचियाँ एवं माल तालिकाओं का निर्धारण; (7) उपलब्ध वित्तीय साधनों के विभिन्न विनियोग निर्णय करना;
(8) कृषि, उद्योग, परिवहन अथवा अन्य विकास कार्यों का विश्लेषण;
(9) अर्थव्यवस्था के विकास का विश्लेषण करना;
(10) परियोजनाओं का तुलनात्मक विश्लेषण करना;
(11) व्यावसायिक फर्म को प्रभावित करने वाली बाह्य परिस्थितियों का पूर्वानुमान।
इस प्रकार के विश्लेषण करने के लिये प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री को अनेक सूचनाएँ, आँकड़े एकत्रित । करने होंगे तथा उनके विश्लेषण की उपयुक्त विधियों का चयन करना होगा।
(D) सामान्य आर्थिक सूचनाएँ उपलब्ध करना
(To Provide General Economic Intelligence)-
प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री विशिष्ट कार्यों के अलावा फर्म के प्रबन्धकों को सामान्य आर्थिक सूचनाएँ भी उपलब्ध करता है, जो तात्कालिक मार्ग-दर्शन में उपयोगी रहती हैं। उदाहरणार्थ, उत्पादन शुल्क, आयात शुल्क, निर्यात शुल्क व करों की दरें क्या हैं? प्रतियोगी फर्मों के मूल्य क्या-क्या हैं? उनका उत्पादन एवं विक्रय कितना-कितना है? फर्म के उत्पादन के प्रति ग्राहकों का क्या रुख है? देश, क्षेत्र या विभिन्न बाजारों की । सम्भावित जनसंख्या क्या-क्या हैं? परिवहन की तुलनात्मक दरें क्या हैं? ये सब सूचनाएँ प्रबन्धकों के लिए। उपयोगी रहती हैं।
प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री के उत्तरदायित्व अथवा जिम्मेदारियाँ
(Responsibilities of Managerial Economist)
प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री सर्वोच्च प्रबन्ध (Top Management) को आर्थिक मामलों में सलाह देकर व्यवसाय के भावी नियोजन तथा निर्णय करने में काफी सहायता प्रदान करता है। वह अपने सलाह कार्य में । तभी सफल सिद्ध हो सकता है जबकि वह अपने उत्तरदायित्वों को भली-भाँति समझकर उन्हें निष्ठा से । सफलतापूर्वक पूरा करे। इस दृष्टि से उसके प्रमुख उत्तरदायित्व इस प्रकार हैं

1. आर्थिक सूचनाओं के स्त्रोतों एवं विशेषज्ञों से निकट सम्पर्क (Close Contacts with the Sources of Economic Information & Experts)-प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री अपने उत्तरदायित्व को तभी निभा सकता है जबकि वह उन सब आर्थिक सचना स्रोतों और ऐसे विशेषज्ञों से निकट सम्पर्क रखे जो उस फर्म को प्रभावित करने वाली आर्थिक सूचनाएँ उपलब्ध कराते रहें अथवा आवश्यक विशेषज्ञ राय दे सके। इससे न केवल यथा शीघ्र पर्याप्त आर्थिक सचनाएँ उपलब्ध हो सकेंगी वरन विशेषज्ञों के निकट सम्पर्क से वह अपने विश्लेषण और निष्कर्षो में अधिक यथार्थता ला सकेगा जो नीति निर्धारण और भावी नियोजन में उपयोगी हैं।

2. सफल पूर्वानुमान (Successful Forecasting)-प्रत्येक व्यावसायिक फर्म के सामने भविश निश्चितता का तत्त्व रहता है और प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री का यह उत्तरदायित्व है कि वह व्यावसायिक प्रबन्धकों को मूल्यों, माँग आदि के सही-सही पर्वानमान उपलब्ध करके भविष्य व अनिश्चितताओं को समाप्त कर जोखिम में कमी कर सके। जितने ही उसके पूर्वानुमान सही होंगे उतने ही फर्म में उसका स्थान ऊँचा होगा और प्रबंध में विश्वास जमेगा

व्यवसाय में निरन्तर नयी-नयी बाह्य परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता रहता है, अतः प्रबन्धकीय होगा और प्रबन्ध में विश्वास जमेगा। अर्थशास्त्री को समय-समय पर पूर्वानमानों में होने वाली अशद्धता अथवा त्रुटि को दूर करने के लिए यथाशीघ्र संशोधित पूर्वानुमान प्रस्तुत करते रहना चाहिये ताकि प्रबन्ध बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपनी भावी योजनाओं और नीति निर्णयों में वांछित समायोजन कर सके। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री को व्यापार चक्रों तथा व्यापार की प्रवृत्ति में आने वाली घटनाओं से फर्म की क्रियाओं में आने परावर्तन-बिन्दुओं (Turming Points) के बारे में प्रबन्धकों को समय-समय पर सतर्क करते रहना चाहिए।

3. विनियोजित पूँजी पर समुचित लाभ तथा उसमें वृद्धि का प्रयास (Efforts for Reasonable • Retum on Capital Employed & Increase Therein)-प्रत्येक व्यावसायिक फर्म का उद्देश्य अन्ततः लाभ कमाना होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये ही तो सब कार्यरत व्यक्ति प्रयास करते हैं। अगर व्यवसाय के निर्णय एवं भावी नियोजन समयानुकुल न रहे तो उसका उत्तरदायित्व प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री व प्रबन्धक पर है और उसमें उनकी अकुशलता झलकती है। चूंकि प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री आर्थिक मामलों में विशेषज्ञ माना जाता है तो उसका उत्तरदायित्व है कि वह सही पूर्वानुमानों, उपयुक्त मूल्य एवं उत्पादन नीतियों के द्वारा निरन्तर फर्म की लाभार्जन क्षमता में वृद्धि में सहायक हो और फर्म को विनियोजित पूँजी पर समुचित लाभ मिल जाये। वैसे लाभ में निरन्तर वृद्धि वांछनीय है। अगर वह फर्म को विनियोजित पूँजी पर समुचित लाभ दिलवाने में असमर्थ रहा तो फर्म के प्रबन्धकों का विश्वास खो बैठेगा व उसकी प्रतिष्ठा कम होगी। यही नहीं, फर्म में उसकी उपादेयता भी संदिग्ध हो जायेगी।

4. फर्म में अपनी उच्च प्रतिष्ठा व प्रस्थिति जमाना (Establishing High Reputation & Status in the Firm)-प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री को अपने कार्यों में दक्षता, निष्ठा, सफल पूर्वानुमानों एवं फर्म में बढ़ती लाभ अर्जन शक्ति का निर्माण करके फर्म में अपनी उच्च प्रतिष्ठा कायम करनी चाहिये ताकि उसे फर्म में अपना उपयुक्त स्थान मिले। अगर वह अपने द्वारा प्रदत्त आर्थिक मामलों की सलाह में प्रबन्ध का समर्थन प्राप्त कर लेता है तथा जटिल आर्थिक समस्याओं का सुबोध हल प्रस्तुत करता है तो प्रबन्धकों में उसके प्रति विश्वास एवं आस्था जाग्रत होगी और अगर वह उपर्युक्त कार्यों में अकुशल एवं असफल रहा। तो अपनी प्रतिष्ठा एवं स्थान खो बैठेगा। अतः काफी सतर्कता, विवेक एवं निष्ठा की आवश्यकता है।

5. सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध (Sweet Relations)-प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री का यह कर्तव्य है कि उसे फर्म के सभी प्रबन्धकों व कार्यरत लोगों में सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध रखने चाहिए ताकि न केवल मानसिक शान्ति के वातावरण में कार्य हो वरन् उसमें कुशलता आए, सहयोग मिले और विरोध की प्रवृत्ति उत्पन्न न हो।

स्पष्ट है कि प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री को अपने उपर्युक्त उत्तरदायित्वों की प्रति सजग रहना चाहिए। तथा अपने कार्य में निष्ठा, दक्षता और यथार्थता के निकट ही विशेषज्ञ सेवाएँ देकर अपनी उपादेयता सिद्ध करनी चाहिए अन्यथा व्यवसायी उसे विलासिता मानकर परित्याग की सोच सकते हैं जो न केवल उनके स्वयं के रोजगार को खतरा है वरन् सभी प्रबन्धकीय अर्थशास्त्रियों की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचा सकता है। उनकी उपादेयता को धुमिल कर देता है।


व्यवसायिक / प्रबंधकीय अर्थशास्त्री
उपादेयता अथवा उपयोगिता
(Utility of Managerial/Business Economist)

सिद्ध हो सकता है जिसमें प्रमुख ये हैं सभी व्यावसायिक प्रबन्धकों के लिए प्रबन्धकीय व्यावसायिक अर्थशास्त्री अनेक कार्यों से उपयोगी

1. आर्थिक मामलों में उपयोगी सलाह (Useful Advice in Economic Matters)-आर्थिक सलाह देकर वह प्रबन्धकों को भावी नियोजन व निर्णय में सहायता प्रदान करता है।

2. अनिश्चितताओं की जोखिम में कमी (Reduction in Risks of Uncertainties)प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री भविष्य की अनिश्चितताओं को दूर करके जोखिम में कमी करता है। वह व्यवसाय में सफल पूर्वानुमान लगाकर प्रबन्धकों को उपयुक्त निर्णय लेने में मदद करता है।

3. विश्वसनीय पूर्वानुमान (Trustworthy Forecasting)-प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री फर्म के मूल्यों, विक्रय, पूजी, माल तालिकाओं का पूर्वानुमान लगाकर प्रबन्धकों को भावी नियोजन में उपयोगी सामग्री उपलब्ध करते हैं। बाजार अनुसंधान से फर्म के उत्पादों में आवश्यक सुधार किया जा सकता है।

4. मितव्ययितापूर्ण संचालन (Economic Operation)-प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री फर्म के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक विश्लेषण करं प्रत्येक क्षेत्र में मितव्ययिता को बढ़ावा दे सकता है जिससे फर्म का मितव्ययितापूर्ण संचालन सम्भव होता है।

5. उत्पादन एवं वितरण लागतों में कमी करना (Reduction in Production and Distribution Costs)-प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री फर्म की आन्तरिक एवं बाह्य परिस्थितियों का विश्लेषण कर उत्पादन एवं वितरण में उपयुक्त सामंजस्य स्थापित कर लागतों में कमी करवा सकता है।

6. फर्म की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में वृद्धि (Increase in Competition Power of the Firm)-फर्म के विश्वसनीय पूर्वानुमान मितव्ययितापूर्ण संचालन तथा लागतों में कमी से फर्म की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में वृद्धि की जाती है ताकि फर्म को प्रतियोगी फर्मों के मुकाबले लाभ रहे।

7. लाभ अर्जन क्षमता में वृद्धि (Increase in Profit Earning Capacity)-प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री प्रबन्धकों को उपयोगी सलाह देकर फर्म की लाभ अर्जन शक्ति में काफी वृद्धि कर सकता है।

8. सरकारी आर्थिक नीतियों का कार्यान्वयन (Implementation of Govt. Policies)आजकल व्यापार एवं उद्योग में बढ़ते राजकीय हस्तक्षेप के कारण प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री फर्म को सरकार की सम्बन्धित आर्थिक नीतियों को लागू करवाकर सरकारी क्षोभ से बचाने में सहायता कर सकता है।

9. बाह्य परिस्थितियों से तालमेल (Co-ordination with External Situations)-परिस्थितियों से तालमेल रखने में सहायता मिलती है और फर्म को अपनी नीतियों में मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति, मूल्य नीति आदि का समायोजन करने में उपयोगी रहता है।

व्यावसायिक अथवा प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री-कार्य एवं दायित्व व्यावसायिक अथवा प्रबन्धकीय अर्थशास्त्री-कार्य एवं दायित्व                           Reviewed by Unknown on अगस्त 24, 2018 Rating: 5

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