कौटिल्य के अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री एवं क्षेत्र ।
(Subject Matter and Scope of Kautilya’s Arthshastra)
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री में निम्न दो बातों की प्रमुखता रही है ।
(1) प्राप्त भूमि का रक्षण-यह कौटिल्य अर्थशास्त्र का पहला सिद्धान्त है। यद्यपि इसके प्रारम्भिक अध्यायों में राजा की भावनाओं, कार्यों और राजकाज के प्रशासन, कानून एवं व्यवस्था तथा राज्य की रक्षा के साथ-साथ अर्थशास्त्र के पहले पाँच अधिकरणों में प्राप्त भूमि के रक्षण पर जोर दिया गया है।
(2) नई भूमि की प्राप्ति के प्रयत्न-अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में नयी भूमि प्राप्ति का विवेचन जिसके अन्तर्गत राज्य की सात प्रकृतियाँ, मित्र तथा शत्रु, पड़ोसी राज्य से सम्बन्ध, गुप्तचर एवं सेना व्यवस्था सम्बन्धी विवेचन के साथ-साथ परराष्ट्र नीति के छ: प्रकार बताये हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यद्यपि उपर्युक्त दोनों बातों पर विशेष ध्यान दिया गया लेकिन अन्य दो बातों-जो परिलक्षित हैं उसका सम्वर्द्धन करना और जो वृद्धि से प्राप्त है उसको उचित कामों में लगाना-पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ऐसे उपायों समावेश है जिनके द्वारा राजा अपने अधीन क्षेत्र से अधिक धन जुटा सके। कौटिल्य ने वृद्धि से प्राप्तियों को उचित कामों में लगाने की बात पर विशेष ध्यान दिया।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रमुख उद्देश्य(Main Objectives of Kautilya's Arthshastra) कौटिल्य ने अपने अपमान का बदला लेने के लिये नन्दवंश के विनाश तथा उसके स्थान पर चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की स्थापना तथा शासन व्यवस्था को सैन्य तथा आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ करने के | उद्देश्य से 'अर्थशास्त्र' की रचना की। इसके प्रमुख उद्देश्य संक्षेप में इस प्रकार हैं
(1) राज्य को भौतिक दृष्टि से सुदृढ़ करना; ।
(2) शासन की व्यावहारिक समस्याओं का विवेचन तथा विवेकपूर्ण समाधान करना;
(3) विधाओं के ज्ञान एवं शिक्षा-प्रसार से जनजागृति लाना;
(4) शोध एवं शिक्षा कार्य के द्वारा देश को महान् बनाना;
(5) राजनैतिक एवं कटनीति सम्बन्धी गढ़ सिद्धान्तों से राज्य शासन सत्ता को शासन कार्य में दक्ष बनाना;
(6) साम्राज्य स्थापना एवं विस्तार की गुढ नीतियों का ज्ञान कराना;
(7) आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं के निराकरण की सूझबूझ उत्पन्न करना;
(8) जन कल्याण एवं जनहित के लिये आर्थिक विकास एवं राजनैतिक सुदृढ़ता की योजनाओं का निर्माण एवं सफल क्रियान्वयन की प्रवृत्ति बढ़ाना आदि थे।
कौटिल्य के उत्पादन के साधन सम्बन्धी विचार
(Kautilya's Ideas about Factors of Production) उत्पादन के साधनों के सम्बन्ध में कौटिल्य के विचारों का संक्षिप्त विवेचन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
(1) भूमि तथा कृषि सम्बन्धी विचार
(2) पशुपालन सम्बन्धी विचार
(3) उद्योग सम्बन्धी विचार
(4) श्रम सम्बन्धी विचार
(5) व्यापार सम्बन्धी विचार
(6) पूँजी एवं व्यक्तिगत सँम्पत्ति सम्बन्धी विचार।।
(1) भूमि तथा कृषि सम्बन्धी कौटिल्य के विचार(Ideas of Kautilya on Land and Agriculture) काटिल्य काल में अर्थव्यवस्था का सम्पर्ण सामाजिक ढाँचा कषि पर आधारित था और आर्थिक उमाण का दौर चल रहा था। इसी कारण कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कषि एवं भूमि सम्बन्धी समस्याओं पर काफी गम्भीर एवं व्यावहारिक विचार प्रस्तुत किये जो अभी भी उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। कौटिल्य काल में भूमि का अधिकांश भाग राजा के अधीन होने से अर्थव्यवस्था में कृषि के दो रूप थे
(1) सरकारी कृषि फार्म, (2) व्यक्तिगत कृषि फार्म।
(1) राजकीय भूमि अथवा सरकारी कृषि फार्म-कौटिल्य के अनुसार राजकीय भूमि/फार्म पर श्रमिकों, दासों अथवा बन्दियों को कार्य पर लगाकर उनसे कृषि कार्य करवाने का दायित्व सीदा अध्यक्ष (कृषि अधीक्षक) पर था। कृषि कार्य में सरकारी यंत्रों एवं उपकरणों का उपयोग होता था और कृषि अधीक्षक का कार्य यह देखना था कि हल, औजारों, बैल एवं उपकरणों की कमी से कृषि कार्य रुके नहीं। सरकारी भूमि को बंटाई पर देने की व्यवस्था थी। जो कृषक अपनी ओर से बीज, बैल एवं औजार लाते थे उन्हें कृषि उपज का 1/2 भाग तथा कृषि उपकरण, बीज एवं बैल इत्यादि सरकार द्वारा दिये जाते तो कृषि उपज का 1/3 अथवा 1/4 भाग किसानों को लेने का हक था।
(2) निजी कृषि फार्म-जो कृषक अपने निजी फार्मों पर कृषि करते थे उन्हें अपनी कृषि उपज का 1/6 भाग राजा को कर के रूप में (भू-राजस्व) देना पड़ता था। दान में दी गई भूमि पर कर नहीं लगता था। सरकार द्वारा भूमि सम्बन्धी लेखा-जोखा और आँकड़े रखने के लिये कृषकों पर अधिकारी, नियामक, समाहर्ता, स्थानिक तथा गोप रखने पड़ते थे।
कृषि उत्पादन बढ़ाने और कृषि क्षेत्र विस्तार की योजनाएँ-कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृषि उत्पादन बढ़ाने तथा कृषि क्षेत्र के विस्तार हेतु भी कई योजनाओं का समावेश है
(i) सिंचाई-यद्यपि कृषि का अधिकांश क्षेत्र वर्षा पर निर्भर करता था पर तालाबों, कुओं एवं नहरों आदि साधनों द्वारा सिंचाई से उत्पादन बढ़ाने के नियम बनाये गये थे। राज्य सिंचाई के अलग-अलग स्रोतों के अनुसार सिंचाई कर का निर्धारण अलग-अलग दर पर करता था। सरकार का काम बाँध निर्माण करना तथा बाँधों से सिंचाई के अतिरिक्त आय भी सरकार की होती थी। बाँधों को नुकसान पहुँचाने वालों के लिये कौटिल्य ने कठोर दण्ड की व्यवस्था की थी।
(ii) कृषि भूमि का विस्तार-कृषि उपज बढ़ाने हेतु कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' में जंगलों को साफ कर तथा ऊसर भूमि को साफ कर कृषि क्षेत्र का विस्तार करने के तरीकों/उपायों का विवेचन किया है।
(iii) जनपदों की स्थापना-जंगलों को साफ करके उससे प्राप्त भूमि पर जनपदों की स्थापना करने, जनसंख्या को बसाने, बसने वालों को कृषि कार्य के लिये पर्याप्त भूमि उपलब्ध कर कृषि उत्पादन तथा सरकारी आय को बढ़ावा आदि की योजनाएँ कौटिल्य की दूरदर्शिता का द्योतक हैं।
डॉ. भण्डारकर के मतानुसार कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जंगलों को साफ कर नये गाँवों एवं जनपदों की स्थापना, उन पर बसने वालों को प्रोत्साहन देना, घनी आबादी वाले क्षेत्रों से जनसंख्या को हटाने, खेती : न करने वालों से भूमि वापस छीन लेना और सन्तोषजनक ढंग से कषि कार्य करने वालों को अन्न, पशु शक्तिशाली हो। एवं धन देना आदि कई योजनाएँ दी गई ताकि कृषि उत्पादन बढे और राज्य की आय के बढ़ने से राज्य
कोसाम्बी ने अपनी कृति प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कति' में जनपदों की स्थापना एवं उपनिवेश बसाने से होने वाले आर्थिक लाभ का विवरण इस प्रकार दिया है-''जनपदों के बीच जाने वाले व्यापारी संघों को प्रवेश एवं निवेश पर चुंगी देनी पड़ती थी।'' जनपद सीमा पार करने के लिये भारी शुल्क चुकाने पर ही आज्ञा पत्र मिलता था।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री एवं क्षेत्र ।
(Subject Matter and Scope of Kautilya’s Arthshastra)
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री में निम्न दो बातों की प्रमुखता रही है ।
(1) प्राप्त भूमि का रक्षण-यह कौटिल्य अर्थशास्त्र का पहला सिद्धान्त है। यद्यपि इसके प्रारम्भिक अध्यायों में राजा की भावनाओं, कार्यों और राजकाज के प्रशासन, कानून एवं व्यवस्था तथा राज्य की रक्षा के साथ-साथ अर्थशास्त्र के पहले पाँच अधिकरणों में प्राप्त भूमि के रक्षण पर जोर दिया गया है।
(2) नई भूमि की प्राप्ति के प्रयत्न-अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में नयी भूमि प्राप्ति का विवेचन जिसके अन्तर्गत राज्य की सात प्रकृतियाँ, मित्र तथा शत्रु, पड़ोसी राज्य से सम्बन्ध, गुप्तचर एवं सेना व्यवस्था सम्बन्धी विवेचन के साथ-साथ परराष्ट्र नीति के छ: प्रकार बताये हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यद्यपि उपर्युक्त दोनों बातों पर विशेष ध्यान दिया गया लेकिन अन्य दो बातों-जो परिलक्षित हैं उसका सम्वर्द्धन करना और जो वृद्धि से प्राप्त है उसको उचित कामों में लगाना-पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ऐसे उपायों समावेश है जिनके द्वारा राजा अपने अधीन क्षेत्र से अधिक धन जुटा सके। कौटिल्य ने वृद्धि से प्राप्तियों को उचित कामों में लगाने की बात पर विशेष ध्यान दिया।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रमुख उद्देश्य(Main Objectives of Kautilya's Arthshastra) कौटिल्य ने अपने अपमान का बदला लेने के लिये नन्दवंश के विनाश तथा उसके स्थान पर चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की स्थापना तथा शासन व्यवस्था को सैन्य तथा आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ करने के | उद्देश्य से 'अर्थशास्त्र' की रचना की। इसके प्रमुख उद्देश्य संक्षेप में इस प्रकार हैं
(1) राज्य को भौतिक दृष्टि से सुदृढ़ करना; ।
(2) शासन की व्यावहारिक समस्याओं का विवेचन तथा विवेकपूर्ण समाधान करना;
(3) विधाओं के ज्ञान एवं शिक्षा-प्रसार से जनजागृति लाना;
(4) शोध एवं शिक्षा कार्य के द्वारा देश को महान् बनाना;
(5) राजनैतिक एवं कटनीति सम्बन्धी गढ़ सिद्धान्तों से राज्य शासन सत्ता को शासन कार्य में दक्ष बनाना;
(6) साम्राज्य स्थापना एवं विस्तार की गुढ नीतियों का ज्ञान कराना;
(7) आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं के निराकरण की सूझबूझ उत्पन्न करना;
(8) जन कल्याण एवं जनहित के लिये आर्थिक विकास एवं राजनैतिक सुदृढ़ता की योजनाओं का निर्माण एवं सफल क्रियान्वयन की प्रवृत्ति बढ़ाना आदि थे।
कौटिल्य के उत्पादन के साधन सम्बन्धी विचार
(Kautilya's Ideas about Factors of Production) उत्पादन के साधनों के सम्बन्ध में कौटिल्य के विचारों का संक्षिप्त विवेचन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
(1) भूमि तथा कृषि सम्बन्धी विचार
(2) पशुपालन सम्बन्धी विचार
(3) उद्योग सम्बन्धी विचार
(4) श्रम सम्बन्धी विचार
(5) व्यापार सम्बन्धी विचार
(6) पूँजी एवं व्यक्तिगत सँम्पत्ति सम्बन्धी विचार।।
(1) भूमि तथा कृषि सम्बन्धी कौटिल्य के विचार(Ideas of Kautilya on Land and Agriculture) काटिल्य काल में अर्थव्यवस्था का सम्पर्ण सामाजिक ढाँचा कषि पर आधारित था और आर्थिक उमाण का दौर चल रहा था। इसी कारण कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कषि एवं भूमि सम्बन्धी समस्याओं पर काफी गम्भीर एवं व्यावहारिक विचार प्रस्तुत किये जो अभी भी उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। कौटिल्य काल में भूमि का अधिकांश भाग राजा के अधीन होने से अर्थव्यवस्था में कृषि के दो रूप थे
(1) सरकारी कृषि फार्म, (2) व्यक्तिगत कृषि फार्म।
(1) राजकीय भूमि अथवा सरकारी कृषि फार्म-कौटिल्य के अनुसार राजकीय भूमि/फार्म पर श्रमिकों, दासों अथवा बन्दियों को कार्य पर लगाकर उनसे कृषि कार्य करवाने का दायित्व सीदा अध्यक्ष (कृषि अधीक्षक) पर था। कृषि कार्य में सरकारी यंत्रों एवं उपकरणों का उपयोग होता था और कृषि अधीक्षक का कार्य यह देखना था कि हल, औजारों, बैल एवं उपकरणों की कमी से कृषि कार्य रुके नहीं। सरकारी भूमि को बंटाई पर देने की व्यवस्था थी। जो कृषक अपनी ओर से बीज, बैल एवं औजार लाते थे उन्हें कृषि उपज का 1/2 भाग तथा कृषि उपकरण, बीज एवं बैल इत्यादि सरकार द्वारा दिये जाते तो कृषि उपज का 1/3 अथवा 1/4 भाग किसानों को लेने का हक था।
(2) निजी कृषि फार्म-जो कृषक अपने निजी फार्मों पर कृषि करते थे उन्हें अपनी कृषि उपज का 1/6 भाग राजा को कर के रूप में (भू-राजस्व) देना पड़ता था। दान में दी गई भूमि पर कर नहीं लगता था। सरकार द्वारा भूमि सम्बन्धी लेखा-जोखा और आँकड़े रखने के लिये कृषकों पर अधिकारी, नियामक, समाहर्ता, स्थानिक तथा गोप रखने पड़ते थे।
कृषि उत्पादन बढ़ाने और कृषि क्षेत्र विस्तार की योजनाएँ-कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृषि उत्पादन बढ़ाने तथा कृषि क्षेत्र के विस्तार हेतु भी कई योजनाओं का समावेश है
(i) सिंचाई-यद्यपि कृषि का अधिकांश क्षेत्र वर्षा पर निर्भर करता था पर तालाबों, कुओं एवं नहरों आदि साधनों द्वारा सिंचाई से उत्पादन बढ़ाने के नियम बनाये गये थे। राज्य सिंचाई के अलग-अलग स्रोतों के अनुसार सिंचाई कर का निर्धारण अलग-अलग दर पर करता था। सरकार का काम बाँध निर्माण करना तथा बाँधों से सिंचाई के अतिरिक्त आय भी सरकार की होती थी। बाँधों को नुकसान पहुँचाने वालों के लिये कौटिल्य ने कठोर दण्ड की व्यवस्था की थी।
(ii) कृषि भूमि का विस्तार-कृषि उपज बढ़ाने हेतु कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' में जंगलों को साफ कर तथा ऊसर भूमि को साफ कर कृषि क्षेत्र का विस्तार करने के तरीकों/उपायों का विवेचन किया है।
(iii) जनपदों की स्थापना-जंगलों को साफ करके उससे प्राप्त भूमि पर जनपदों की स्थापना करने, जनसंख्या को बसाने, बसने वालों को कृषि कार्य के लिये पर्याप्त भूमि उपलब्ध कर कृषि उत्पादन तथा सरकारी आय को बढ़ावा आदि की योजनाएँ कौटिल्य की दूरदर्शिता का द्योतक हैं।
डॉ. भण्डारकर के मतानुसार कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जंगलों को साफ कर नये गाँवों एवं जनपदों की स्थापना, उन पर बसने वालों को प्रोत्साहन देना, घनी आबादी वाले क्षेत्रों से जनसंख्या को हटाने, खेती : न करने वालों से भूमि वापस छीन लेना और सन्तोषजनक ढंग से कषि कार्य करने वालों को अन्न, पशु शक्तिशाली हो। एवं धन देना आदि कई योजनाएँ दी गई ताकि कृषि उत्पादन बढे और राज्य की आय के बढ़ने से राज्य
कोसाम्बी ने अपनी कृति प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कति' में जनपदों की स्थापना एवं उपनिवेश बसाने से होने वाले आर्थिक लाभ का विवरण इस प्रकार दिया है-''जनपदों के बीच जाने वाले व्यापारी संघों को प्रवेश एवं निवेश पर चुंगी देनी पड़ती थी।'' जनपद सीमा पार करने के लिये भारी शुल्क चुकाने पर ही आज्ञा पत्र मिलता था।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री एवं क्षेत्र
Reviewed by Unknown
on
अगस्त 24, 2018
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