कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आर्थिक अवधारणाएँ


कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आर्थिक अवधारणाएँ
(Economic Concepts of Kautilya's Arthshastra)
कौटिल्य ने अपने महान् ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' में अपने आर्थिक विचारों को बहुत ही क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत कर तत्कालीन आर्थिक मुद्दों पर बहुत ही सम्यक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण का सूत्रपात किया है। उसने अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं कृषि, उद्योग, व्यापार, माप-तौल, सार्वजनिक वित्त, निजी सम्पत्ति अधिकार आदि पर अपने व्यावहारिक विचार व्यक्त किये हैं।
कौटिल्य को चाणक्य तथा विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है। कौटिल्य का जन्म-नाम विष्णुगुप्त था। चणक का पुत्र होने के कारण उसे चाणक्य तथा कुटिल एवं कुशाग्र राजनीतिज्ञ होने के कारण कौटिल्य नाम से जाना जाने लगा। कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये 'अर्थशास्त्र' की रचना की। कौटिल्य का अर्थशास्त्र प्राचीन भारतीय चिन्तन की नीतिपरक परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि ग्रन्थ है जिसकी रचना 321 से 300 वर्ष ईसा पूर्व के बीच होने का ऐतिहासिक मत है। यद्यपि कौटिल्य का अर्थशास्त्र पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों-एडम स्मिथ के 'वैल्थ ऑफ नेशन्स'; जे.एस. मिल और माल्थस आदि की रचनाओं एवं आधुनिक अर्थशास्त्र से बहुत दूर है फिर भी वह तत्कालीन आर्थिक अवधारणाओं के बारे में जो विश्लेषण प्रदान करता है वह भारत की वर्तमान आर्थिक समस्याओं के व्यावहारिक समाधान में सहायक हो सकता है। चूंकि कौटिल्य मूलत: एक अर्थशास्त्री न होकर एक दार्शनिक, कूटनीतिज्ञ तथा प्रबुद्ध विचारक था। अतः उसके अर्थशास्त्र में अगर कोई व्यक्ति आधुनिक (पाश्चात्य) अर्थशास्त्र की विषय सामग्री खोजे तो मुश्किल ही होगा। कौटिल्य का अर्थशास्त्र ईसा से 300 वर्ष पूर्व का होने तथा प्राचीन भारत में अर्थशास्त्र की विषय सामग्री, क्षेत्र एवं महत्त्व पाश्चात्य देशों से भिन्न होने के कारण अन्तर स्वाभाविक था। उस समय अर्थशास्त्र वेद-वेदांगों का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था। कौटिल्य ने मानव जीवन का विभाजन धर्म, अर्थ एवं काम के आधार पर किया किन्तु तीनों में से अर्थ को सर्वाधिक प्रधानता दी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र की मुख्य विशेषता यह है कि इस ग्रन्थ में परम्परागत धर्मप्रधान विचारों के स्थान पर अर्थप्रधान विचारों का प्रतिपादन किया गया। परिणामस्वरूप पूर्व संस्थापित धर्म-प्रधान भावना एवं आदर्श के विरुद्ध अर्थप्रधान एवं भौतिकवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ। यह कौटिल्य के निम्न कथन से स्पष्ट होता है; “सुखस्य मूलम् धर्म। धर्मस्य मूलम् अर्थः। अर्थस्य मूलम् राज्यम् अर्थात् सुख का मूल धर्म
है, धर्म का मूल अर्थ है और अर्थ का मूल राज्य है।'' अन्यत्र कौटिल्य ने लिखा है कि संसार में धन " ही वस्तु है, धन के अधीन धर्म और काम है।"
कौटिल्य के प्रमुख आर्थिक विचार (Main Economic Ideas of Kautilya) कौटिल्य अपने समय का एक प्रबुद्ध विचारक, महान् दार्शनिक एवं कूटनीतिज्ञ था। अतः उसने अपने महान् ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र में ज्ञान (विद्याओं) की चार. शाखाओं का चित्रण किया है, जो क्रमशः (1) त्रयी (धर्म-दर्शन), (2) वार्ता (अर्थशास्त्र), (3) आन्वीक्षिकी (दर्शनशास्त्र), तथा (4) दण्डनीति (राजनीतिशास्त्र) हैं। इनका संक्षिप्त विवरण अग्र प्रकार है

(1) त्रयी (धर्म-दर्शन) के अन्तर्गत कौटिल्य के वेद-वेदांगों के ज्ञान के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक विषयों का समावेश किया है। इसमें सामाजिक विषयों को भी लिया है।

(2) वार्ता (अर्थशास्त्र) के अन्तर्गत कौटिल्य ने जहाँ एक ओर कृषि, पशुपालन, खनन उद्योग एवं व्यापार आदि का समावेश किया है। जिनके द्वारा भौतिक साधनों एवं सम्पत्ति का अर्जन होता है, वहाँ दूसरी वनों, वन्य जीवों, धात्विक खनिजों तथा राज्य की आर्थिक व्यवस्था को सम्मिलित किया है।
(3) आन्वीक्षिकी (दर्शनशास्त्र) के अन्तर्गत कौटिल्य ने तर्क, विवेक एवं न्याय के सिद्धान्तों को सम्मिलित किया है।
(4) दण्डनीति (राज्यतंत्र एवं राजनीतिशास्त्र) को ज्ञान की उपरोक्त तीन शाखाओं-त्रयी, वार्ता तथा क्षिकी के सही एवं सफल क्रियान्वयन के लिये उत्तरदायी माना है, चूंकि बृहस्पति ने त्रयी एवं आन्वीक्षिकी को दण्डनीति में ही समाहित कर केवल दो विधाओं-वार्ता एवं दण्डनीति को ही अधिक महत्त्व । था। अतः उसके प्रभाव के कारण कौटिल्य ने भी अपने प्रमुख ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र में इन्हीं दो विद्याओं पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया।
कौटिल्य के समय में अर्थशास्त्र न केवल वेद-वेदांगों का एक महत्त्वपूर्ण अंग था वरन् उसमें धर्मशास्त्र की उपयोगिता की अभिव्यक्ति की पर्ण क्षमता होने के कारण यह धर्मशास्त्र का भी अविभाज्य उस समय इसमें भौतिक साधनों एवं अल्प अर्जन की क्रियाओं-कृषि, उद्योग-व्यापार आदि को भी सम्मिलित कर लिया था।
काटिल्य ने 'धर्म, अर्थ एवं काम' के आधार पर मानव जीवन का विवेचन किया है और इन ना में से उसने अर्थ को सर्वाधिक प्रधानता दी, क्योंकि बिना अर्थ के किसी भी प्रकार की क्रिया सम्भव नहीं होती। इस प्रकार कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में सर्वसंस्थापित परम्परागत 'धर्मप्रधान विचारों के विरोधी अर्थप्रधान विचारों का प्रतिपादन किया। उसके अनुसार अर्थ ही प्रथम एवं महत्त्वपूर्ण है। परिणामस्वरूप आदर्शवाद के स्थान पर भौतिकवाद का प्रादुर्भाव हुआ।
अर्थ तथा अर्थशास्त्र की परिभाषा-कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ' अर्थशास्त्र' में 'अर्थ' तथा अर्थशास्त्र को परिभाषित करते हुए लिखा है कि मनुष्य के व्यवहार तथा जीविका को अर्थ कहते हैं। मनुष्यों से। युक्त भूमि का नाम ही अर्थ है। इस भूमि की प्राप्ति तथा उसके रक्षण के लिये किये जाने वाले उपायों का निरूपण करने वाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहते हैं।''
कौटिल्य के शब्दों में, “मनुष्याणां वृत्तिरः मनुष्यवती भूमिरित्यर्थः तस्या पृथिव्या लाभ पालनोपायः शास्त्रमर्थ शस्त्र मिति।''
कौटिल्य के विचारों में धर्म पर अर्थ की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। उसके अनुसार सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल अर्थ है और अर्थ का मूल राज्य है।'' (सुखस्य मूलम् धर्मः, धर्मस्य मूलम् । अर्थः। अर्थस्य मूलम् राज्यम् ।।) इस कथन से कौटिल्य ने धर्म पर अर्थ की प्रधानता स्थापित करने का प्रयास किया है। अन्यत्र भी कौटिल्य ने कहा है कि ''संसार में धन ही वस्तु है और धर्म तथा काम धन के अधीन है।''
कौटिल्य के इन विचारों से स्पष्ट होता है कि उसने अर्थशास्त्र को पुरातन धर्म, आदर्श एवं नीतिशास्त्र से मुक्त कर भौतिकवाद की वास्तविक स्थिति में रख दिया। कौटिल्य की अर्थशास्त्र की परिभाषा आधुनिक पाश्चात्य भौतिकवादी अर्थशास्त्रियों-मार्शल, पीगू एवं जे.एस. मिल के विचारों से मिलती-जलती। है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल धन का शास्त्र नहीं-कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल धन या अर्थ का शास्त्र न होकर उससे भी कहीं अधिक व्यापक एवं विस्तृत शास्त्र है। प्रो. दत्तात्रेय रामकृष्ण भण्डारकर के अनुसार- अर्थशास्त्र का क्षेत्र वह अर्थ है जो पुरुषार्थ के त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ एवं काम में से एक है।'' इसकी पुष्टि वात्स्यायन के विचारों से भी होती है कि जब ब्रह्मा ने मानव की सृष्टि की तब एक लाख श्लोकों का जो ग्रन्थ धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति के लिये सुनाया गया उसमें से धर्म से सम्बन्धित भाग को मनु ने अलग कर दिया जबकि अर्थ से सम्बन्धित भाग को बृहस्पति ने और काम से सम्बन्धित भाग को नंदिन ने। बृहस्पति को अर्थशास्त्र का प्रणेता कहा जाता है। उनके अनुसार भी अर्थशास्त्र हिन्दू दृष्टिकोण के त्रिवर्ग में से दूसरे पुरुषार्थ 'अर्थ' से सम्बन्धित है जिससे ज्ञात होता है कि यह मानव समुदाय के सभी नाम वार्ता है अर्थशास्त्र नहीं। लोगों की भौतिक समृद्धि से सम्बन्धित है। कौटिल्य के अनुसार, अर्थ तथा वित्त से सम्बन्धित शास्त्र का नाम वार्ता है अर्थशास्त्र नही है





कौटिल्य के अर्थशास्त्र का राजनैतिक आधार-कौटिल्य के अर्थशास्त्र का राज्यशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि एक विशेष राजव्यवस्था के अन्तर्गत आर्थिक गतिविधियों का सम्पादन तथा अर्जित साधनों का सदुपयोग अर्थशास्त्र का महत्त्वपूर्ण विषय है। यही कारण है कि पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों-एडम स्मिथ, मिल, से तथा रोबिन्स की भाँति कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी एक तरह से राजनीतिक शास्त्र (Political Economy) कहा जा सकता है।

जहाँ कौटिल्य ने अर्थशास्त्र को धर्म, नीति एवं दर्शनशास्त्र से पृथक किया वहाँ उसने अर्थशास्त्र को राज्यशास्त्र का अविभाज्य अंग माना, क्योंकि राज्यतंत्र का सम्बन्ध भी निम्न चार बातों से है
(i) अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति का प्रयास।। (ii) प्राप्य वस्तु का रक्षण। (iii) उचित रूप से रचित वस्तु की वृद्धि करना।। (iv) वृद्धि से प्राप्ति को उचित कामों में लगाना।
इसमें से प्रथम दो बातें-अर्थशास्त्र का आधार और विषय-सामग्री है। इसी में भूमि की प्राप्ति एवं उसका रक्षण करना शामिल है। इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजतंत्र की विधा का एक महत्त्वपूर्ण भाग है।



कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आर्थिक अवधारणाएँ             कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आर्थिक अवधारणाएँ Reviewed by Unknown on अगस्त 24, 2018 Rating: 5

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